Tuesday, May 31, 2016

प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!


प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा

प्रकृति, पर्यावरण और हम ६: फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग


कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!

एक बार एक सज्जन पहाडों में चढाई कर रहे थे| उनके पास उनका भारी थैला था| थके माँदे बड़ी मुश्किल से एक एक कदम चढ रहे थे| तभी उनके पास से एक छोटी लड़की गुजरी| उसने अपने छोटे भाई को कन्धे पर उठाया था और बड़ी सरलता से आगे बढ़ रही थी| इन सज्जन को बहुत आश्चर्य हुआ| कैसे यह लड़की भाई का बोझ ले कर चल रही है जब कि मुझे तो एक थैला ले जाना दुभर हो रहा है? उन्होने लड़की से पूछा तो उसने बताया कि यह मेरे लिए बोझ नही है, मेरा भाई है| उसका भला कैसे बोझ होगा? तब उनके समझ में आया| यह कहानि बिल्कुल अर्थपूर्ण है| जब तक हम किसी बात को पराया समझते हैं, तब तक वह हमारे लिए बोझ होता है, कर्तव्य होता है| लेकिन जब उसी बात को हम अपनाते हैं; अपना मानते हैं, तो वह सरल और सहज होता है|

ठीक यही बात पर्यावरण के सम्बन्ध में भी हैं| आज हम कितना समझते हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना बड़ा कठिन हैं; बहुत मुश्किल काम हैं; लेकिन हमारे बहुत नजदीक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिससे विश्वास मिलता है कि पर्यावरण की रक्षा करना उतनी भी कठिन बात नही है| जैसे कई लोग आज मानते हैं- कई किसानों की यह धारणा है कि गाय को संभलना; गाय का पालन करना आज बहुत कठिन हो गया है| आज गौपालन 'viable' नही हैं| आज वह एक 'asset' नही, बल्की एक 'liability' है| लेकिन थोड़ी आँखें खुली रखी तो हमे दिखाई देता है कि यह अपरिहार्य नही है| आज भी ऐसे घूमन्तू समुदाय (nomadic tribes) हैं जो स्वयं बुरी स्थिति में होने के बावजूद गायों को पालते हैं| उनके लिए गाय कोई वस्तु नही; उनका स्वयं का ही एक अंग है| कुदरत से ताल्लुक रखनेवाले समुदायों में यह भी देखा जाता हैं कि चाहे उनके खाने के लिए कुछ हो ना हो, जो भी अतिथि उनके पास जाएगा, भूखा नही जाएगा| इन्सान तो दूर, वे कुत्ते को भी भूखा नही रखेंगे| अपनी सम्पदा उसके साथ भी शेअर करेंगे|





एक सत्य घटना है- एक बार एक सरकारी अफसर एक आदिवासी कस्बे में आया| आदिवासी किसान अपने खेतों में फसल काटने के बाद उसका सीधा इस्तेमाल नही करते हैं| वे उसका बहुत सम्मान करते हैं| अच्छे मन से ही‌ वे फसल पर आगे का काम शुरू करते हैं| स्नान किए बिना उसे छूते भी नही है| उस कस्बे में फसल रखी थी| तभी वह अफसर अपने बूट पहने उसी फसल पर से गया| उसे तो इस प्रथा और इस सोच का अन्दाजा ही नही था| लोग थोडे नाराज हुए लेकिन समझ भी गए| उसे भी समझाया| वह भी थोड़ा चौंका| फिर लोग उसकी खातिरदारी करने लगे| अब कोई अतिथि गाँव में आता है तो खाली कैसे जाएगा? तो उसके लिए चाय बनाने लगे| लेकिन एक अड़चन बड़ी थी| गाँव में दुध ही नही था| अब अतिथि को बिना दुध के काली चाय कैसे दे सकते थे? इसलिए वे बड़े परेशान हुए| दुध बाहर से लाना उनके लिए कठिन था| इतने में यह सब बात गाँव की कुछ महिलाओं ने सुनी| तुरन्त उन्होने कुछ किया| गाँव में एक स्तनदा महिला थी- छोटे बच्चे को दुध पिला रही थी| उसे कह दिया और उसने अपना ही दुध एक कटौरी में दे दिया और उसी दुध से उस अतिथि के लिए चाय बनी! हम विश्वास भी नही कर सकते हैं कि ऐसा होता है| लेकिन यह सच में घटी बात हैं|

आदिवासियों में प्रकृति से जुड़ाव होने के कारण एक बहुत ही सन्तुलित जीवनशैलि दिखाई देती हैं| लेकिन अगर हम हमारी शहरों में दूषित हुई दृष्टि लेकर जाएंगे, तो उसे शायद समझ नही सकेंगे| आदिवासियों में छोटे बच्चों को कुत्ते या पहाडों के या पत्थरों के नाम दिए जाते हैं| उपर से देखने में लग सकता है कि यह भी कितनी‌ बचकानी बात है! लेकिन नही| आदिवासी जानता है कि जंगल में रहते समय कुत्ता कितना बड़ा साथी होता है- कितना साथ निभाता है| उसके सम्मान के तौर पर बच्चे का नाम कुत्ते पर रखा जाता है| या पहाड़ भी कितना सहयोगी है यह जानने के कारण बच्चे को पहाड़ जैसा 'डोंग-या' नाम दिया जाता है| नाग से भी नाम रखा जाता है| प्रकृति की कार्य शृंखलाओं में हर सृजन का अपना महत्त्व है| हर एक का विशिष्ट स्थान है| और यह सब परस्पर- सहजीवन (Symbiosis) है| अगर इस शृंखला की एक भी कड़ी टूट जाए, तो सबकी हानि होती है| खैर|





पर्यावरण के लिए कुछ करनेवाले लोग चारों ओर मिलते हैं| थोड़ी सी सजगता चाहिए जिससे हमें यह आसानी से मिल सकते हैं| उदाहरण के लिए कुछ लोगों से परिचय करते हैं|

  • चिपको मूवमेंट की गौरी देवी जिन्होने महिलाओं का संघटन किया और ७० के दशक में सभी विरोधों के बावजूद पेड़ों की रक्षा की| आज उन पेडों का महत्त्व हमें धीरे धीरे पता चल रहा है|

  • चेवांग नॉर्फेल ऐसे शख़्स हैं जिन्होने मानवनिर्मित ग्लेशिअर्स की तकनीक ढूँढी हैं| लदाख़ में ऐसे मानवनिर्मित ग्लेशिअर्स से भुमिगत जल स्तर बढने में सहायता हो रही है| सिंचाई का सीजन बढ़ रहा है| उन्हे 'आईस मैन' कहा जाता हैं!

  • कोईंबतूर में बस कंडक्टर के तौर पर काम करनेवाले एम वाय योगानंथन जी! उन्होने पीछले छब्बीस सालों में तमिल नाडू में ३८,००० से अधिक पेड़ लगाए हैं!

और ऐसे कई सारे लोग| उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण नाम और एक हैं- हम सब व्यक्तिगत तौर पर! हम भी उतने ही पर्यावरण प्रेमी हैं| लेकिन हम उसके बारे में सजग नही होते हैं| अगर हमें बीमारी का एहसास होता है तो उसका मतलब यही है किं हम स्वास्थ्य भी जानते हैं| ऐसा कोई नही होगा जिसने जीवन के किसी मक़ाम पर बड़ी सख़्त मिट्टी की परत में से निकलनेवाले अंकुर को न देखा होगा| ऐसा कोई नही होगा जो काले बादलों के बीच बरखा आने पर पुलकित न हुआ हो| ऐसा कोई नही होगा जिसने बड़ी तेज़ प्यास के बाद पानी पिने के चैन का अनुभव न लिया हो| इसलिए हम सब पर्यावरण प्रेमी है| लेकिन उसे एक 'सेवा'; एक 'कर्तव्य'; एक 'बोझ' समझते हैं इसलिए उससे जुड़ने से चूकते जाते हैं| लेकिन अगर हम इस प्रकृति और पर्यावरण को अपना ही विस्तार जानने लगते हैं, तो हमे पर्यावरण संवर्धन करना नही पड़ता, वह अपने से हो जाता है| अगले हिस्से में इसी के सम्बन्धित कुछ पहलूओं की चर्चा करेंगे|

अगला भाग: प्रकृति, पर्यावरण और हम ८: इस्राएल का जल- संवर्धन

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